Brief History
Brief History |
भगवान बुद्ध एवं महावीर की तपोभूमि से शिक्षा का आलोक उस समय तिरोहित हो गया जब विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय एवम् तेल्हाडा का प्राचीनतम शिक्षा केंद्र धुल में मिल गया l बहुत दिनों तक पूरा प्रक्षेत्र तिमिराच्छादित रहा l अज्ञानता एवं पिछड़ेपन के गहन तिमिर को छिन्न – भिन्न करने के लिए वर्तमान शताब्दी में इस दिशा के कुछ प्रकाश –स्तंभ खड़े हुए l श्रीचन्द उदासीन महाविधालय , हिलसा नालंदा कॉलेज बिहार शरीफ के बाद निर्मित दूसरा पूज्य बाबा विष्णु प्रकाष उदासीन उर्फ झक्खड़ बाबा के की, जिनकी कुटिया आज भी महाविद्यालय के समीप उवस्थित है। बाबा उदासीन सम्प्रदाय के एक संत थे। बाबा के अथक प्रयास से भवन-निर्माण में जनसहयोग एवं उनके भक्त श्री अनंग विजय मित्रा (अधिवक्ता), जमषेदपुर निवासी के अमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। 1957 ई0 में कई प्रमुख कला विषयों में इंटर स्तर तक सम्बद्धता प्राप्त हुई। पुनः 1959 ई0 स्नातक (बी. ए.) स्तर तक की सम्बद्धता प्राप्त हुई। 1964 ई0 से इस महाविद्यालय में स्नातक स्तर तक विज्ञान की पढ़ाई प्रारंभ हो गई। समयांतराल में पास एवं प्रतिष्ठा की भी पढ़ाई प्रारंभ हो गई। 1976 ई0 में यह महाविद्यालय मगध विष्वविद्यालय की अंगीभूत इकाई बन गयी। मार्च 2018 में पाटलिपुत्र विष्वविद्यालय, पटना के स्थापना होने के समय से यह महाविद्यालय पाटलिपुत्र, पटना का एक अंगीभूत इकाई है। आज भी महाविद्यालय पूर्ण विकसित रुप में है। कई दृष्टियों से यह विश्वविद्यालय में विषिष्ट स्थापना प्राप्त कर चुका है। इस महाविद्यालय का परिवेष अत्यन्त ही मनोरम है। इतिहास प्रसिद्ध सूर्य मंदिर बगल में है। विषाल सूर्य पोखर तट पर महाविद्यालय का भव्य भवन एवं दूसरे तट पर विषाल छात्रावास खड़ा है। इसका नामकरण उदासीन मत के प्रवर्तक श्रीचन्द (नानकदेव के पुत्र) के नाम पर हुआ हैं इस प्रकार महाविद्यालय की सत्ता पौराणिकता एवं धर्मिकता की अपूर्ण कहानी है। सम्प्रति इस महाविद्यालय में स्नातक प्रतिष्ठा स्तर तक कला एवं विज्ञान के विविध विषयों में अध्ययन-अध्यापन होता हैं यहाँ का परीक्षा फल एवं अनुषासन अनुकरणीय है। कई बार यहाँ के छात्रों ने परीक्षाफल में विष्वविद्यालय में कीर्तिमान स्थापित किया है। इसका एक मात्र कारण है- यहाँ के योग्य एवं अनुभवी षिक्षकों की कर्मठता एवं प्रधानाचार्य की कार्यपटुता। हमें पूण्र विष्वास है कि प्राचीन विलुप्त गरिमा को पुनर्जीवित करने में यह महाविद्यालय सफल माध्यम बनेगा। अपूर्वः कोडपि कोषेडवं विधाते तव भरति। व्यचते वृद्धिमायति क्षयमायाति संचायत।। अर्थात् हे सरस्वती! तुम्हारा कोष बड़ा विचित्र है। खर्च करने से यह बढ़ता और यत्न से छिपाकर रखने से यह घटता है। |
श्रीचन्द उदासीन महाविधालय का संक्षिप्त इतिहास
महाविधालय का मुख्य – भवन ‘स्वास्तिक’ के आकार में निर्मित है l 108 स्तंभों के आधार पर खड़ी यह रचना एक ठोस संदेश यह देती है की शिक्षा का केंद्र एक पवित्र स्थल होता है, जहाँ सभी जाती धर्म व वर्गों के लिए बिना किसी भेद - भाव के सामान प्रदान की जाती है l
दरअसल, स्वास्तिक हिन्दू धर्म से जुड़ा एक महत्वपूर्ण प्रतीक भी है l यह शुभ, सुख - सम्रद्धि, शांति व सौहार्दपूर्ण भाई – चारे का घोतक माना जाता है l हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानो में स्वास्तिक चिन्ह है प्रयोग होता हैl अन्य धर्म तथा बौद्ध एवं जैन आदि धर्मो में भी स्वास्तिक की शुभ शुचिता का प्रतीक मानते है l हमारे ग्रामीण अंचल में आज भी छोटे – बड़े घरों में स्वास्तिक चिन्ह का प्रयोग प्रचलित है l
इस प्रतीक चिन्ह का आविर्भाव हमारे सौर – मण्डल व ग्रहीय रचनाओ से भी सीधा – सीधा जुड़ा है l पृथ्वी की रचना में ‘Big Bang’ सिद्धान्त की भूमिका रही है, जिसके तहत एक भयंकर विस्फोट के उपरांत उत्पन्न उर्जा का प्रसारण ब्रह्माण्ड में चारो दिशाओ में हुआ व अन्य गृह भी बने l
स्वास्तिक का निशान सौर- मण्डल व ग्रहों की दशा की ओर इशारा करता है l यह मण्डल जिसके केन्द्र में स्थित ‘सूर्य’ प्रतिदिन हमे उर्जा व प्रकाश प्रदान करता है और हम सभी कार्यो को सरलता व सहजता से संपन्न कर पाते है l ठीक उसी प्रकार यह महाविधालय ज्ञान का प्रकाश चहूँ और बाँटता है l
स्वास्तिक की चारों भुजाएँ चार दिशाओ - पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण से संबंधित है, साथ ही चार वेंदो – श्रग, साम,यर्जु व अर्थव का घोतक है lइसके अलावा यह चार पुरुषार्थो- धर्म,अर्थ, काम व मोक्ष तथा जीवन के चार आश्रम – ब्रह्राचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ व सन्यास की ओर भी संकेत करती है
निष्कर्षत :- कहा जाए तो यह स्वास्तिक एक संपूर्ण ‘जीवन चक्र’ का परिचायक है l